हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरी बाजरे की। अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई, टटकी कली चंपे की, वग़ैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है। बल्कि केवल यही : ये […]
साहित्य
कविता : इंतजार तुम्हारा (अंजुम शर्मा)
जैसे नदी करती है इंतज़ार समुद्र का खो जाने के लिए जैसे पहाड़ करते हैं इंतज़ार बर्फ़ का सो जाने के लिए जैसे बादल करते हैं इंतज़ार नमी का बरस जाने के लिए जैसे रंग करते हैं इंतज़ार कूची का बिखर जाने के लिए जैसे फूल करते हैं इंतज़ार वसंत का जी उठने के लिए […]
कहानी : पिंजरा (उपेन्द्रनाथ अश्क)
शांति ने ऊब कर काग़ज़ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और उठकर अनमनी-सी कमरे में घूमने लगी। उसका मन स्वस्थ नहीं था, लिखते-लिखते उसका ध्यान बँट जाता था। केवल चार पंक्तियाँ वह लिखना चाहती थी; पर वह जो कुछ लिखना चाहती थी, उससे लिखा न जाता था। भावावेश में कुछ-का-कुछ लिख जाती थी। छ: पत्र वह […]
कहानी : हार की जीत (सुदर्शन)
माँ को अपने बेटे, साहूकार को अपने देनदार और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवत-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाक़े में न […]