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दरभंगा : विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में ‘जयशंकर प्रसाद की राष्ट्रीय भावना’ पर संगोष्ठी का हुआ आयोजन

दरभंगा (नासिर हुसैन)। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार व छायावाद के प्रमुख स्तंभ जयशंकर प्रसाद की जयंती के मौके पर स्नातकोत्तर विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में ‘जयशंकर प्रसाद की राष्ट्रीय भावना’ विषयक संगोष्ठी का आयोजन हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार ने अपने उद्बोधन में कहा कि छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद का स्मरण करते हुए यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि पूरा छायावाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से प्रभावित था जो राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की सबसे मुखर आवाज थे। इसलिए, जयशंकर प्रसाद के लेखन पर गांधी जी का और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का निश्चित ही प्रभाव था। छायावादी रोमांटिकता के बावजूद उनकी कविता, कहानी और नाटकों में राष्ट्रीय भावना है। साहित्यलोचक जब यह कहते हैं कि विश्वयुद्ध से पहले यदि ‘कामायनी’ की रचना हुई होती तो विश्वयुद्ध होता ही नहीं तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है। भारतीय संस्कृति के उदार मानवीय मूल्यों और विश्व बंधुत्व का संदेश देने में ‘कामायनी’ पूर्णतः सक्षम है। उनके नाटक ‘चंद्रगुप्त’ का वह दृष्टांत यहां स्मरणीय है, जब दंडायन के समक्ष सिकन्दर उपस्थित होकर भारत को जीतने की बात कहता है। दंडायन उसे ललकारते हुए भारत के उज्ज्वल भविष्य का आह्वान करता है। यह एक उपनिवेशित राष्ट्र द्वारा राष्ट्रीयता की खोज नहीं तो और क्या है। हम साहित्य में राष्ट्रीय भावना को तलाश रहे हैं, यह साहित्य और समाज के लिए निश्चित ही शुभ है।

बतौर अतिथि वक्ता मैथिली फिल्म ‘विद्यापति’ के निर्देशक, नाटककार व एमएमटीएम कॉलेज के सहायक प्राचार्य डॉ. श्याम भास्कर ने कहा कि जिस प्रकार गांधी के बिना राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती है, उसी तरह प्रसाद के बिना छायावाद की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रसाद कृत ‘कामायनी’ की ख्याति आज भी बनी हुई है। आखिर क्या कारण है ‘कामायनी’ वर्तमान दौर में और अधिक प्रासंगिक है? इसका कारण कृति में विद्यमान संतुलन, समरसता की जरूरत का विराट फलक पर अंकन है। इस दृष्टि से ‘कामायनी’ भविष्य का काव्य है।

विभागीय सह प्राचार्य डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि जयशंकर प्रसाद का रचना काल गांधी युग ही था। इसलिए, प्रसाद की राष्ट्रीय भावना के सन्दर्भ में गांधी जी को किनारे कर किसी राष्ट्रीय भावना की बात नहीं की जा सकती। छायावाद पर हिन्दी के प्रायः सभी आलोचकों ने कलम चलाई है। मुक्तिबोध ने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ लिखा। विचारणीय है कि मुक्तिबोध ने ‘कामायनी’ की युगीन यथार्थ-चित्रण के आधार पर समीक्षा की है। जब प्रसाद सृजनरत थे, उसी समय स्वाधीनता आंदोलन में देशभक्त शहादत की कतारें सजा रहे थे। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु सरीखे नौजवान आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे रहे थे। क्या इन बलिदानियों को प्रसाद की राष्ट्रीय भावना में स्थान मिल पाता है ? यह वो कसौटी है, जहां से प्रसाद की राष्ट्रीय भावना को देखना होगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रसाद की राष्ट्रीय भावना रोमांटिकता के दबाव में दिखती है।

डॉ.आनंद प्रकाश गुप्ता ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए कहा कि प्रसाद की रचनाओं में वर्णित चाणक्य और चन्द्रगुप्त भले इतिहास के पात्र हों, परन्तु ऐसे सभी पात्र वर्तमान राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत हैं। हिन्दी समाज में ‘रामचरितमानस’ के बाद ‘कामायनी’ का ही वैसा सम्मानजनक स्थान है। छायावादी काव्य में राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न सर्वाधिक प्रसाद जी ने ही उठाया। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति का जो गौरव गान मिलता है, पराधीन भारत की आत्मा को ऊंचा उठाने के लिए परमावश्यक था।

मौके पर तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के सहायक प्राचार्य धर्मेंद्र दास, वरीय शोधार्थी अभिषेक कुमार सिन्हा, सियाराम मुखिया, दुर्गानंद ठाकुर, समीर कुमार, सुभद्रा कुमारी, कंचन रजक, नबी हुसैन, मलय नीरव, संध्या राय, अंशु कुमारी और स्नातकोत्तर छात्र दीपक कुमार, राजवीर पासवान, प्रमोद कुमार, धीरज कुमार, कंचन कुमारी, श्रुति कुमारी, गौरीकांत गौरव आदि ने भी अपने शब्दों में प्रसाद जी को याद किया। कार्यक्रम में स्नातकोत्तर छात्र-छात्राओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया।

 

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