खोजता था मैं स्वयं को, पर सामने तू आ गया,
क्षुद्र कन्टक जो चुभा था हृदय में, परिधान बन लहरा गया,
छेड़ रहा था जब संगीत मैं इस हृदय की वीणा पर,
राग था वो क्षुद्र और थी स्वर लहरी भी मर्मर,
पर सुना नीरव सघन में जब अज्ञात-सा वह स्पंदन,
काल की गति ठहरी इस कदर, ज्यों हो गया हो उसका स्तंभन,
वह मधुर संगीत इस कदर था उर में छा गया,
खोजता था मैं स्वयं को…..
पहुंच गया मैं कैसे इन मधुरिम अमराइयों में,
गया हूं शायद तेरी अतल गहराइयों में,
इस हृदय ने क्षुद्र कन्टक की वेदना जो सही है,
वही वेदना पर अब मुझे सुमधुर लग रही है,
परिवर्तन ऐसा अब उसी में मैं हूं पा गया,
खोजता था मैं स्वयं को…..
शायद कोई अनुभव अब हो गया है मुझको ज्ञात,
पर व्यक्त करने हेतु शब्द हैं अभी भी अज्ञात,
व्यक्त करने हेतु अश्रु ही केवल एक पुष्पंजलि है,
इस वेदना को व्यक्त करती एक यही भावांजलि है,
स्वरों की अनुपस्थिति व्यक्त करने यह भाव है अब आ गया…..
खोजता था मैं स्वयं को…..
