साहित्य

कविता : खुली किताब-सा हूँ… (नागेन्द्र बहादुर सिंह चौहान)

खुली किताब-सा हूँ…

थोड़ा भोला-भाला अनाड़ी सा हूँ,
देखोगे तो खुली किताब सा हूँ मैं।
सबकी चालाकियों से वाकिफ़ हूँ,
लुटने के बाद से अनमना सा हूँ मैं।
यहां चमत्कार को है नमस्कार,
सहज सरल को मिलती दुत्कार।
स्वार्थियों की गठित हुई सरकार,
परमार्थी को इज्जत की दरकार।
थोड़ा भोला-भाला अनाड़ी सा हूँ,
देखोगे तो खुली किताब सा हूँ मैं।
छल छद्म का खूब बोलबाला है,
यहां ईमानदारी का मुंह काला है।
चोरों के कंधे पर बहू का डोला है,
अब लाज शर्म बस मासा तोला है।
थोड़ा भोला-भाला अनाड़ी सा हूँ,
देखोगे तो खुली किताब सा हूँ मैं।
ठगों की बारात शहर से गांव तक,
झूठ दिखावा हर घर चौखट तक।
शहर हो या गांव बेटी बेटा में फर्क,
संयुक्त परिवार की इकाई रही दरक।
थोड़ा भोला-भाला अनाड़ी सा हूँ,
देखोगे तो खुली किताब सा हूँ मैं।
सबकी चालाकियों से वाकिफ़ हूँ,
लुटने के बाद से अनमना सा हूँ मैं।

नागेन्द्र बहादुर सिंह चौहान

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