साहित्य

कहानी : शरणागत (वृंदावनलाल वर्मा)

(एक)

ज्जब क़साई अपना रोज़गार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रक़म। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफ़ी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा-नामक गाँव में ठहर जाने का निश्चय किया। उसकी पत्नी को बुख़ार हो आया था, रक़म पास में थी, और बैलगाड़ी किराए पर करने में ख़र्च ज़्यादा पड़ता, इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा।

परंतु ठहरता कहाँ? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था। उसकी पत्नी नाक और कानों में चाँदी की बालियाँ डाले थी, और पैजामा पहने थी। इसके सिवा गाँव के बहुत-से लोग उसको पहचानते भी थे। वह उस गाँव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर ख़रीद कर ले जा चुका था।

अपने व्यवहारियों से उसने रात-भर के बसेरे के लायक़ स्थान की याचना की। किसी ने भी मंज़ूर न किया। उन लोगों ने अपने ढोर रज्जब को अलग-अलग और लुके-छिपे बेचे थे। ठहरने में तुरंत ही तरह-तरह की ख़बरें फैलतीं, इसलिए सबों ने इंकार कर दिया।

गाँव में एक ग़रीब ठाकुर रहता था। थोड़ी-सी ज़मीन थी, जिसको किसान जोते हुए थे। जिसका हल-बैल कुछ भी न था। लेकिन अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान वसूल कर लेने में ठाकुर को किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था। छोटा-सा मकान था, परंतु उसको गाँव वाले गढ़ी के आदरव्यंजक शब्द से पुकारा करते थे, और ठाकुर को डर के मारे ‘राजा’ शब्द संबोधन करते थे।

शामत का मारा रज्जब इसी ठाकुर के दरवाज़े पर अपनी ज्वरग्रस्त पत्नी को लेकर पहुँचा।

ठाकुर पौर में बैठा हुक़्क़ा पी रहा था। रज्जब ने बाहर से ही सलाम करके कहा— “दाऊजू, एक बिनती है।”

ठाकुर ने बिना एक रत्ती-भर इधर-उधर हिले-डुले पूछा— “क्या?”

रज्जब बोला- “मैं दूर से आ रहा हूँ। बहुत थका हुआ हूँ। मेरी औरत को ज़ोर से बुख़ार आ गया है। जाड़े में बाहर रहने से न जाने इसकी क्या हालत हो जाएगी, इसलिए रात-भर के लिए कहीं दो हाथ जगह दे दी जाए।”

“कौन लोग हो?” ठाकुर ने प्रश्न किया।

“हूँ तो क़साई।” रज्जब ने सीधा उत्तर दिया। चेहरे पर उसके बहुत गिड़गिड़ाहट थी।

ठाकुर की बड़ी-बड़ी आँखों में कठोरता छा गई। बोला— “जानता है यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?”

रज्जब ने आशा-भरे स्वर में कहा- “यह राजा का घर है, इसलिए शरण में आया हुआ हूँ।”

तुरंत ठाकुर की आँखों की कठोरता ग़ायब हो गई। ज़रा नरम स्वर में बोला- “किसी ने तुम को बसेरा नहीं दिया है।”

“नहीं महाराज”, रज्जब ने उत्तर दिया- “बहुत कोशिश की, परंतु मेरे खोटे पेशे के कारण कोई सीधा नहीं हुआ।” और वह दरवाज़े के बाहर ही, एक कोने से चिपटकर बैठ गया। पीछे उसकी पत्नी कराहती, काँपती हुई गठरी-सी बनकर सिमट गई!

ठाकुर ने कहा- “तुम अपनी चिलम लिए हो?”

“हाँ, सरकार!” रज्जब ने उत्तर दिया।

ठाकुर बोला- “तब भीतर आ जाओ, और तमाखू अपनी चिलम से पी लो। अपनी औरत को भीतर कर लो। हमारी पौर के एक कोने में पड़े रहना।”

जब वे दोनों भीतर आ गए तो ठाकुर ने पूछा- “तुम कब यहाँ से उठकर चले जाओगे?” जवाब मिला- “अँधेरे में ही महाराज! खाने के लिए रोटियाँ बाँधे हैं, इसलिए पकाने की ज़रूरत न पड़ेगी।”

“तुम्हारा नाम?”

“रज्जब।”

(दो)

थोड़ी देर बाद ठाकुर ने रज्जब से पूछा- “कहाँ से आ रहे हो।” रज्जब ने स्थान का नाम बतलाया।

“वहाँ किस लिए गए थे?”

“अपने रोज़गार के लिए।”

“काम तो तुम्हारा बहुत बुरा है।“

“क्या करूँ, पेट के लिए करना ही पड़ता है। परमात्मा ने जिसके लिए जो रोज़गार नियत किया है, वही उसको करना पड़ता है।”

“क्या नफ़ा हुआ?” प्रश्न करने में ठाकुर को ज़रा संकोच हुआ, और प्रश्न का उत्तर देने में रज्जब को उससे बढ़कर।

रज्जब ने जवाब दिया- “महाराज, पेट के लायक़ कुछ मिल गया है। यों ही।” ठाकुर ने इस पर कोई ज़िद नहीं की।

रज्जब एक क्षण बाद बोला—“बड़े भोर उठकर चला जाऊँगा। तब तक घर के लोगों की तबियत भी अच्छी हो जाएगी।”

इसके बाद दिन-भर के थके हुए पति-पत्नी सो गये। काफ़ी रात गए कुछ लोगों ने एक बँधे इशारे से ठाकुर को बाहर बुलाया। एक फटी-सी रज़ाई ओढ़े ठाकुर बाहर निकल आया।

आगंतुकों में से एक ने धीरे से कहा- “दाऊजू, आज तो ख़ाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।”

ठाकुर ने कहा- “आज ज़रूरत थी। ख़ैर, कल देखा जाएगा।”

“क्या कोई उपाय किया था?”

“हाँ” आगंतुक बोला- “एक क़साई रुपए की मोट बाँधे इसी ओर आया है। परंतु हम लोग ज़रा देर में पहुँचे। वह खिसक गया। कल देखेंगे। ज़रा जल्दी।”

ठाकुर ने घृणा-सूचक स्वर में कहा- “क़साई का पैसा न छुएँगे।”

“क्यों?”

“बुरी कमाई है।”

“उसके रुपयों पर क़साई थोड़े ही लिखा है।”

“परंतु उसके व्यवसाय से वह रुपया दूषित हो गया है।”

“रुपया तो दूसरों का ही है। क़साई के हाथ आने से रुपया क़साई नहीं हुआ।”

“मेरा मन नहीं मानता, वह अशुद्ध है।”

“हम अपनी तलवार से उसको शुद्ध कर लेंगे।”

ज़्यादा बहस नहीं हुई। ठाकुर ने सोचकर अपने साथियों को बाहर का बाहर ही टाल दिया।

भीतर देखा, क़साई सो रहा था, और उसकी पत्नी भी।

ठाकुर भी सो गया।

(तीन)

सवेरा हो गया, परंतु रज्जब न जा सका। उसकी पत्नी का बुख़ार तो हल्का हो गया था, परंतु शरीर-भर में पीड़ा थी, और वह एक क़दम भी नहीं चल सकती थी।

ठाकुर उसे वहीं ठहरा हुआ देखकर कुपित हो गया। रज्जब से बोला— “मैंने ख़ूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव-भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ देखकर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ। इसी समय।”

रज्जब ने बहुत विनती की, परंतु ठाकुर न माना। यद्यपि गाँव-भर उसके दबदबे को मानता था, परंतु अन्य लोकमत दबदबा उसके भी मन पर था। इसलिए रज्जब गाँव के बाहर सपत्नीक एक पेड़ के नीचे जा बैठा, और हिंदू-मात्र को मन-ही-मन कोसने लगा।

उसे आशा थी कि पहर आध-पहर में उसकी पत्नी की तबियत इतनी स्वस्थ हो जाएगी कि वह पैदल यात्रा कर सकेगी। परंतु ऐसा न हुआ, तब उसने एक गाड़ी किराए पर कर लेने का निर्णय किया।

मुश्किल से एक चमार काफ़ी किराया लेकर ललितपुर गाड़ी ले जाने के लिए राज़ी हुआ। इतने में दुपहर हो गई! उसकी पत्नी को ज़ोर का बुख़ार हो आया। वह जाड़े के मारे थर-थर काँप रही थी, इतनी कि रज्जब की हिम्मत उसी समय ले जाने की न पड़ी। गाड़ी में अधिक हवा लगने के भय से रज्जब ने उस समय तक के लिए यात्रा को स्थगित कर दिया, जब तक कि उस बेचारी की कम-से-कम कँपकँपी बंद न हो जाए।

घंटे-डेढ-घंटे बाद उसकी कँपकँपी तो बंद हो गई, परंतु ज्वर बहुत तेज़ हो गया। रज्जब ने अपनी पत्नी को गाड़ी में डाल दिया और गाड़ीवान से जल्दी चलने को कहा।

गाड़ीवान बोला- “दिन-भर तो यही लगा दिया। अब जल्दी चलने को कहते हो!”

रज्जब ने मिठास के स्वर में उससे फिर जल्दी करने के लिए कहा। वह बोला- “इतने किराए में काम नहीं चलेगा। अपना रुपया वापस लो। मैं तो घर जाता हूँ।”

रज्जब ने दाँत पीसे। कुछ क्षण चुप रहा। सचेत होकर कहने लगा— “भाई, आफ़त सबके ऊपर आती है। मनुष्य मनुष्य को सहारा, देता है, जानवर तो देते नहीं। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। कुछ दया के साथ काम लो।”

क़साई को दया पर व्याख्यान देते सुनकर गाड़ीवान को हँसी आ गई।

उसको टस से मस न होता देखकर रज्जब ने और पैसे दिए। तब उसने गाड़ी हाँकी।

पाँच-छः मील चलने के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास में न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बुख़ार में बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली, रक़म सुरक्षित बँधी पड़ी थी।

रज्जब को स्मरण हो आया कि पत्नी के बुख़ार के कारण अंटी का कुछ बोझ कम कर देना पड़ा है—और स्मरण हो आया गाड़ीवान का वह हठ, जिसके कारण उसको कुछ पैसे व्यर्थ ही दे देने पड़े थे। उसको गाड़ीवान पर क्रोध था, परंतु उसको प्रकट करने की उस समय उसके मन में इच्छा न थी।

बातचीत करके रास्ता काटने की कामना से उसने वार्तालाप आरंभ किया— “गाँव तो यहाँ से दूर मिलेगा।”

“बहुत दूर, वहीं ठहरेंगे।”

“किसके यहाँ?”

“किसी के यहाँ भी नहीं। पेड़ के नीचे। कल सवेरे ललितपुर चलेंगे।”

“कल को फिर पैसा माँग उठना।”

“कैसे माँग उठूँगा? किराया ले चुका हैं। अब फिर कैसे माँगूगा?”

“जैसे आज गाँव में हठ करके माँगा था। बेटा, ललितपुर होता, तो बतला देता!”

“क्या बतला देते? क्या सेंत-मेंत गाड़ी में बैठना चाहते थे?”

‘क्यों बे, क्या रुपए देकर भी सेंत-मेंत का बैठना कहाता है? जानता है, मेरा नाम रज्जब है। अगर बीच में गड़बड़ करेगा, तो नालायक़ को यहीं छुरे से काटकर कहीं फेंक दूँगा और गाड़ी लेकर ललितपुर चल दूँगा।”

रज्जब क्रोध को प्रकट नहीं करना चाहता था, परंतु शायद अकारण ही वह भली भाँति प्रकट हो गया।

गाड़ीवान ने इधर-उधर देखा। अँधेरा हो गया था। चारों ओर सुनसान था। आस-पास झाड़ी खड़ी थी। ऐसा जान पड़ता था, कहीं से कोई अब निकला और अब निकला। रज्जब की बात सुनकर उसकी हड्डी काँप गई। ऐसा जान पड़ा, मानों पसलियों को उसकी ठंडी छुरी छू रही हो।

गाड़ीवान चुपचाप बैल को हाँकने लगा। उसने सोचा—गाँव के आते ही गाड़ी छोड़कर नीचे खड़ा हो जाऊँगा, और हल्ला-गुल्ला करके गाँव वालों की मदद से अपना पीछा रज्जब से छुडाऊँगा। रुपए-पैसे भले ही वापस कर दूँगा, परंतु और आगे न जाऊँगा। कहीं सचमुच मार्ग में मार डाले!

गाड़ी थोड़ी दूर और चली होगी कि बैल ठिठककर खड़े हो गए। रज्जब सामने न देख रहा था, इसलिए ज़रा कड़ककर गाड़ीवान से बोला— “क्यों बे बदमाश, सो गया क्या?”

अधिक कड़क के साथ सामने रास्ते पर खड़ी हुई एक टुकड़ी में से किसी के कठोर कंठ से निकला… “ख़बरदार, जो आगे बढ़ा।”

रज्जब ने सामने देखा कि चार-पाँच आदमी बड़े-बड़े लठ बाँधकर न जाने कहाँ से आ गए हैं। उनमें तुरंत ही एक ने बैलों की जुआरी पर एक लठ पटका और दो दाएँ-बाएँ आकर रज्जब पर आक्रमण करने को तैयार हो गए।

गाड़ीवान गाड़ी छोड़कर नीचे जा खड़ा हुआ। बोला… “मालिक मैं तो गाड़ीवान हूँ। मुझसे कोई सरोकार नहीं।”

“यह कौन है?” एक ने गरजकर पूछा।

गाड़ीवान की घिग्घी बँध गई। कोई उत्तर न दे सका।

रज्जब ने कमर की गाँठ को एक हाथ से सँभालते हुए बहुत ही नम्र स्वर में कहा— “मैं बहुत ग़रीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुझे जाने दीजिए।”

उन लोगों में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी। गाड़ीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसको पकड़ लिया।

अब उसका मुँह खुला। बोला- “महाराज, मुझको छोड़ दो। मैं तो किराए से गाड़ी लिए जा रहा हूँ। गाँठ में खाने के लिए तीन-चार आने पैसे ही हैं।”

“और यह कौन है? बतला।” उन लोगों में से एक ने पूछा।

गाड़ीवान ने तुरंत उत्तर दिया- “ललितपुर का एक क़साई।

रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, वह वहीं रह गई। लाठीवाले के मुँह से निकला- “तुम क़साई हो? सच बताओ!”

“हाँ, महाराज!’ रज्जब ने सहसा उत्तर दिया- “मैं बहुत ग़रीब हूँ। हाथ जोड़ता हूँ मुझको मत सताओ। मेरी औरत बहुत बीमार है। औरत ज़ोर से कराही।

लाठीवाले उस आदमी ने अपने एक साथी से कान में कहा- “इसका नाम रज्जब है। छोड़ो। चलें यहाँ से।”

उसने न माना। बोला- “इसका खोपड़ा चकनाचूर करो दाऊजू, यदि वैसे न माने तो। असाई-क़साई हम कुछ नहीं मानते।”

“छोड़ना ही पड़ेगा, उसने कहा— “इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न इसका पैसा छुएँगे।”

दूसरा वोला- “क्या क़साई होने के डर से दाऊजू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। मैं देखता हूँ।” और उसने तुरंत लाठी का एक सिरा रज्जब की छाती में अड़ाकर तुरंत रुपया-पैसा निकाल देने का हुक्म दिया। नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने ज़रा तीव्र स्वर में कहा— “नीचे उतर आओ। उससे मत बोलो। उसकी औरत बीमार है।”

“हो, मेरी बला से”, गाड़ी में चढ़े हुए लठैत ने उत्तर दिया- “मैं क़साइयों की दवा हूँ।” और उसने रज्जब को फिर धमकी दी।

नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने कहा— “ख़बरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चकनाचूर किए देता हूँ। वह मेरी शरण आया था।”

गाड़ीवान लठैत झख-सी मारकर नीचे उतर आया।

नीचे वाले व्यक्ति ने कहा- “सब लोग अपने-अपने घर जाओ। राहगीरों को तंग मत करो।” फिर गाड़ीवान से बोला— “जा रे, हाँक ले जा गाड़ी। ठिकाने तक पहुँचा आना, तब लौटना। नहीं तो अपनी ख़ैर मत समझियो। और, तुम दोनों में से किसी ने भी कभी इस बात की चर्चा कहीं की, तो भूसी की आग में जलाकर ख़ाक कर दूँगा।”

गाड़ीवान गाड़ी लेकर बढ़ गया। उन लोगों में से जिस आदमी ने गाड़ी पर चढ़कर रज्जब के सिर पर लाठी तानी थी, उसने क्षुब्ध स्वर में कहा— “दाऊजू, आगे से कभी आपके साथ न आऊँगा।”

दाऊजू ने कहा— “न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुज़रता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।”

 

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