जादूगर
डरा था, सहमा-सा,
बरफ की भाँति जमा-सा…
किंकर्तव्यविमूढ़ था.
उथल-पुथल मस्तिष्क में,
हृदय स्पंदन तेज था
और, विवेक निश्तेज था.
इक शब्द से इतना विचलित हुआ,
इक शब्द से इतना आहत था…
कहाँ चूक हुई, क्या गलत किया?
जो जिया था अबतक जीवन- सत्य या मिथ्या!
सरल, मृदुल, विवेकी था
और सहनशीलता थी उसमें.
कभी नहीं घबराता था वो
बड़ी निडर-सी काया थी…
शब्दों का वो जादूगर था,
भावनाओं का बुनकर…
आज वो जादू भूल गया
और,
बुनी थीं जो भावनाएँ,
उन्हें पहनकर झूल गया
आज वो जादू भूल गया
आज वो जादू भूल गया…
सत्यदेव मुकुल
लेखक- द सिग्निफिकेंट लाइफ
हैदराबाद