जिस दिन वह जेल से छूटा था. मुहल्ले में पटाखे दगे थे. कसाई टोला वालों ने चंदा इकट्ठा कर रोशनी का इंतजाम किया था. फाटक बड़ा सुन्दर बना था.
वह लड़ा था दयाल सेठ से. जुम्मन मियाँ के लिए…. दयाल सेठ ने नुक्कड़ के पास वाली जमीन खरीद ली थी. उसके पास ही जुम्मन का घर था. सेठ का कहना था कि जुम्मन की झोपड़ी जिस जमीन पर बनी थी वह जमीन जुम्मन की नहीं थी. जिसकी थी उसने बेच दिया है, उनके हाथ. मगर जुम्मन मियाँ कहते कि उनकी है. उन्होंने साढे़ सात सौ में ख़रीदी है. यह सुनकर दयाल सेठ हँस पड़ते और अपने पालतुओं की तरफ देखते तो जुम्मन मियाँ डरकर झोपड़ी के अन्दर चले जाते और लौटते तो उनके हाथ में एक कागज होता. उसे सेठ को दिखाते हुए वे कहते, “देख लो मालिक मेरे नाम से जमीन है यह.”
एक सुबह जुम्मन मियाँ चिल्ला रहे थे. किसी ने कारण पूछा तो रोते हुए बोले कि उनका बैनामा वाला कागज कोई चुरा ले गया है…
सुनकर सन्नाटा पहन लिए मुहल्ले वाले. जुम्मन बेहोश हो गए.
मगर उस दिन जुम्मन मियाँ बेहद खुश थे. दौड़-दौड़कर रिकॉर्ड वाले से कहते, “अरे सगीर भाई वो…वो वाला रिकॉर्ड बजाओ तो ज़रा…क्या…वो क्या नाम है…हाँ…बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है.” रिकॉर्ड बजने लगता और जुम्मन मियाँ नाचने लगते, ठुमक-ठुमक कर. वह बहुत खुश थे उस दिन.
वह जैसे ही मुहल्ले में पहुँचा, जुम्मन मियाँ लिपटकर बच्चों की तरह रोने लगे. वह भी रोने लगा था. देखने वालों की आँखें नम हो चली थीं. औरतें तो आँसू पोंछने लगी थीं. उस दिन उसका ख़ून खौल उठा था. मन में आया था कि दयाल सेठ के दो टुकड़े कर आकाश में टाँग दे…या…बोटियाँ करके भूखे कुत्तों के सामने फेंक दे…!
दयाल सेठ ने अपने पालतुओं को जुम्मन के ऊपर छोड़ दिया था. एक जुम्मन को झापड़ मार रहा था और दूसरा घूँसा. तभी दयाल सेठ ने आगे बढ़कर जुम्मन का गला पकड़ लिया और वह उँगलियों की गिरफ़्त मज़बूत करता चला जा रहा था.
उस वक़्त के दृश्य को वह अपनी कहानी में रखना चाहता था. बड़ी बारीकी से एक-एक व्यतीत होते क्षण के अन्दर बैठता चला जा रहा था वह. जैसे-जैसे घटना उछलती जाती, उसे वह मस्तिष्क में क़ैद करता जाता. मगर तभी झकझोरकर रख दिया किसी ने. उसी शख़्स ने कलम छीनकर हाथों में तलवार थमा दी, बोटियाँ काटकर कुत्तों को सुँघवाने के लिए…वह सोचने लगा…कहानी तो बन जाएगी मगर जुम्मन की जान. रसूलन और मकबूल दोनों ही छोटे-छोटे बच्चे…क़ानून उसे दयाल सेठ के टेरीलीन वाले कुर्ते की जेब में झलकता हुआ मिला. वह इधर-उधर देखने लगा…सेठ जुम्मन का गला दबाए जा रहा था. मुहल्ले वाले हतप्रभ थे.
लपककर उसने सेठ का गिरेहबान पकड़ लिया. एक ही झटका दिया कि अगले क्षण सेठ धूल चाट रहा था…पालतू हाथों में औज़ार लेकर आगे बढ़ रहे थे…तभी जहीर मियाँ खसी हलाल करने वाली छुरी लेकर ललकारने लगे…देखा-देखी और लोग भी बर्छी, लाठी इत्यादि लेकर निकल पड़े. एक आग सरसराती हुई फैल गई! पालतू ग़ायब थे. लाठियों की मार से दयाल सेठ की कुछ अस्थियाँ चरमराकर टूट गईं.
इसके बाद वह गिरफ़्तार हो गया.
वह कहानी लिखने के लिए सोच रहा है. थोड़ी देर बाद पेन उठाकर लिखना चाहता है. चार-पाँच लाइन लिख सका होगा कि खट…खट… आने वाले के खिलाफ बड़बड़ाता हुआ दरवाजा खोल देता है. चाहता तो था, दरवाजा न खोले और लिखता रहे.
मगर…दरवाजा खोलते ही नामालूम कहाँ से एक मुस्कुराहट टेढ़े होंठों को समर्पित हो गई, मौसी जी नमस्ते…अरे मौसा जी हैं…नमस्ते…वाह…वा…प्रमोद भी और वा भाई वाह…यह दिन्नू जी भी आए हैं…
थोड़ी देर बाद कलम लेकर पुनः लिखने बैठता है. कुछ ही अक्षर लिख पाया होगा कि माँ पसीना पोंछते हुए आती हैं और फर्श पर थूककर बोलती हैं, काम देखकर पढ़ास सूझती है, पानी-वानी पीने के लिए कुछ आएगा कि- नहीं.
वह तेज़ी से उठता है और मेज पर अनायास ही घूँसा मारता है, जिससे माँ समझ जाए कि वह गुस्से में है.
रास्ते भर दिमाग में धुआँ भरा रहा. कभी गालियाँ बकता, कभी यह इच्छा होती कि वापस जाकर माँ से लड़े. घर का सारा कामकाज वह करे और साथ में डाँट भी सुने. इस पर तुर्रा यह कि गार्ड साहब का लड़का इतना सीधा है और तिवारी जी का भोला अच्छे नम्बर लाता है.
“लाला एक पाव मिठाई तौल दो.” तभी ‘अर…ए…आ…वो…म्मा चाय पीयो.’ समय की पुकार थी कि चाय न पिए, देर हो जाएगी, मगर नफ़्सों की फरमाइश थी कि चाय पीकर ही चले. वह बातें करता मगर तभी दुकानदार ने मिठाई का डिब्बा लाकर मेज पर रख दिया. बहस का नशा गायब हो गया. आँखों के सामने माँ का बड़बड़ाता चेहरा उसे झकझोरता हुआ घूम गया.
रास्ते में चिर-परिचित धुआँ आहिस्ते से आकर और मस्तिष्क में घुसकर षड्यंत्र रचने लगा. जिस जगह उसने सम्पूर्ण आदर्शवादिता सहेज रखी थी उसे धुएँ ने अन्धा कर दिया और चारों तरफ चुपके-चुपके एक मजबूत दीवार बुनने लगा.
समूचा आदर्शवाद दीवार के अन्दर ही कट-कट कर विभक्त होने लगा. कुछ ही क्षणों में टुकड़ों का ढेर लग गया. सब जगह धुआँ फैल चुका था. उसी के प्रभाव में आकर वह यह कह बैठा यह मेरी माँ है…डायन…साले को एक मिनट की फुरसत नहीं…
ऐसे मौक़ों पर वह यह सोचने की कोशिश करता है कि वह मेरी माँ है…पाला है…पोसा है…लेकिन जाने क्यों ये विचार कुछ ही क्षणों में धराशायी हो जाते हैं. बुलबुले के मानिन्द उठते हैं और उसी की तरह अल्पायु में ही फूट जाते हैं. रह जाता केवल वही चिर-परिचित धुआँ…
यह धुंध पूर्णतया परहेजी है, इस बात से वह वाकिफ है; उसे चाहिए कि आदर्श का अलाव जलाकर धुआँ दूर कर दे लेकिन शैतानी ताकतों को समेटता हुआ यह धुआँ बेहद शक्तिशाली है. उसने उसके समूचे आदर्श को निगल डाला है. इसी की गैरहाजिरी में उसने मौसी को आते ही गाली दी थी और माँ को भी.
आज फिर लिखने बैठा है. सोचने लगता है. तभी सामने रैक पर नजर पड़ती है—किताबें क्रोध से काँपते हुए उसे घूर रही हैं. जो अक्सर उसके साहित्य सृजन के वक़्त उसका उपहास उड़ाया करती हैं, कभी उसकी कलम पकड़ लेती हैं और कभी उसके विचारों और यथार्थ को रौंदते हुए तहस-नहस कर डालती हैं. वह अपनी मेहनत के टुकड़ों पर अफसोस करना चाहता है मगर वह भी नहीं करने देतीं. आज भी वह पूरे आक्रोश के साथ काँपती हुई कह रही हैं—विज्ञान का छात्र होकर लेखक बनता है. बेवकूफ कहीं का. अपने पैरों पर ख़ुद ही कुल्हाड़ी मारता है. लेखक बनेगा. कोर्स की कॉपी-किताब घूरे पर डाल दे और बन लेखक. मूर्ख! अपना जीवन बर्बाद मत कर। साहित्य-वाहित्य का चक्कर छोड़. आ मुझे उठा और पढ़ नहीं तो फेल हो जाएगा.
“मैं फेल हो जाऊँगा. नहीं, मुझे फेल नहीं होना है. पढ़ूँगा.” इतना कहकर वह जन्तु-विज्ञान की एक वजनी पुस्तक उठाकर पढ़ता है….अरे…बाप रे…बाप! आठ-आठ प्रैक्टिकल कॉपी पर लिखने के लिए शेष हैं.
“अरे! इसको तो कहीं पर लिख चुका हूँ.” वह पन्ना पलटता है. नाइट्रोजन निर्माण की प्रयोगशालीय विधि तीन-तीन बार लिख चुका है. एक ही चीज की पुनरावृत्तियों का कारण उसका ‘सोचना’ है. यह सोचना भी कितना बेशर्म है. बार-बार चोरों की तरह उसके दिमाग में घुसता है. वह उसे उत्तेजना, घृणा और नफरत से झटक देता है, मगर वह बेहया की तरह पुनः गैस बनकर घुस जाता है और कुछ समय के बाद ठोस बनकर तनाव पैदा करता है. विभिन्न प्रकार के तनावों के कशमकश में कसा वह अक्सर अपने बेहद ज़रूरी काम बिगाड़ देता है और पाता है क्या? सफेद कागज पर लिखने को कुछ अक्षर. अक्षरों में भी नामालूम कितने व्यर्थ चले गए. इस बात का अहसास ही चुभता हुआ होता है. वह अपनी रचनाओं से जितना अधिक लगाव और स्नेह रखता, उसके पिताजी उससे कहीं अधिक नफरत और गुस्से से उनको देखते.
जब वह केवल लिखता था यानी कि छपता नहीं था तब कम अंक पाने इत्यादि जैसे दोषों पर उसके पिताजी उस पर ‘न पढ़ने’ जैसा आरोप नहीं लगाते वरन् वे उसकी कोई रचना लेकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर पैरों तले कुचल देते…क्रूरता से रौंदते. तब वह यह महसूस करता कि उसके सामने खड़ा आदमी उसके दिमाग, दिल, उँगलियों और उसके पैन को रौंद रहा है. सब जगह जख़्म हो गए हैं, जिसमें से खून रिस रहा है. उँगलियों में सैकड़ों घाव हो गए हैं.
“खूब नॉवेल पढ़ और वही लिख. याद रख. एक दिन यह किस्सा-कहानी तुझे ले डूबेगा.”
ख़ैर, यह किस्सा तब खत्म हुआ जब उसके द्वार पर दुर्भाग्य की दीवार हँस पड़ी थी. हँसने से काले दुर्गन्धयुक्त फूल झड़े थे.
भइया, भाभी को साथ लेकर या उचित यह होगा कि भाभी भइया को लेकर घर से अलग हो गईं.
वह दृश्य अब भी उसके मन के एक कोने में चुपचाप पड़ा है. वह जब कभी सुगबुगाता है तो उसके सामने पिताजी का डबडबाई आँखों वाला भावुक चेहरा तैरने लगता है. आज भी उसके तैरने का आभास हो रहा है.
जब भइया-भाभी लड़-झगड़ कर घर से अलग होने लगे तो शायद पिताजी के हृदय में स्नेह उमड़ पड़ा लेकिन भइया बिना कुछ बोले, भाभी की कलाई पकड़कर तेज कदमों से चल पड़े. पिताजी भी आगे बढ़ गए और रास्ता रोकने की कोशिश करते हुए भइया की पीठ पर हाथ फेरे और बोले, “क्यों दीपू, सच में जा रहा है? अपने बाप से भी गुस्सा करता है. तू कितना भी बड़ा हो जा लेकिन मैं तेरा बाप ही…”
इसके आगे वह कुछ नहीं कह सके, बस भइया को हृदय से भींचकर रो पड़े।. भइया को यह बेहद बुरा लगा शायद. तभी तो वे पिताजी को झटके से दूर हटाते हुए भाभी के साथ चले गए. उसे अच्छी तरह मालूम है कि इस घटना के पूरे अठारह दिनों तक पिताजी का शरीर तपता रहा. अपनों ने ही धोखा दिया था…
नींद में वह दीपू-दीपू चिल्लाते रहते. माँ ने भइया से लौट आने की प्रार्थना की मगर उनकी अब पहले से ज़्यादा अच्छी कट रही थी. इसलिए उन्होंने आने से इनकार कर दिया. और एक रात को नींद से उठकर पिताजी भइया के घर की ओर चल पड़े. दूसरे दिन प्रातः घर में कोहराम मचा था. सभी की आँखों में आँसू थे। और हृदय में अतीत की स्मृतियाँ. घर में पिताजी की लाश आई थी…
उसके दिल में बड़ी हसरत थी कि इलाहाबाद जाकर पढ़ेगा. बड़े-बड़े साहित्यकारों से दीदार होगा मगर यह सभी हसरतें पिताजी की लाश के साथ ही जलकर राख हो गईं…
जिस जगह उसका घर है, वह बेहद बदबूदार जगह है. उस मोहल्ले में अधिकांशतः धोबी, कसाई और कुँजड़ों के ही कुनबे बसते हैं. ऐसा लोगों का विश्वास है कि उसका परिवार मोहल्ले में अपेक्षाकृत तमीज़दार है. पूरे मुहल्ले में हमेशा कहीं न कहीं जंग छिड़ी रहती है. कभी-कभी लाठियों की टकराहट और कभी-कभी छुरियाँ भी चल जाती हैं. गाली-गलौज…निरन्तर चलने वाला रिकॉर्ड है. अन्दर सभी कुनबों…में समानता है. टूटी-फूटी…चारपाई जस्ते के कालिमा लिये बरतन…चीथड़ों और कतरनों की मदद से बने बिस्तर और उन पर पेशाब की दुर्गन्ध…घरों के सामने बदबूदार नाली और भुरभुराती मिट्टी की दीवारें…जगह-जगह पर बीड़ियों के ढेर और थूक पर भिनभिनाती मक्खियाँ…
हर घर में रात को एक शराबी आता है. वह मारपीट करता है. फिर चीख़ और चिल्लाहटें उभरती हैं. गालियाँ उभरती हैं. फिर शराबी अपनी बीवी को नंगी कर उस पर कुत्ते की तरह टूट पड़ता है. बीवी भी सब कुछ भूलकर…लात-घूँसों को धोती, पेटीकोट के साथ उतारकर एक कोने में रख देती है और शराबी से लिपट जाती है…
मौसी घर में आई हैं. इनकी तीमारदारी और विदाई पर उसकी ही जेब से निकलेगा. कहाँ से आएगा पैसा? रचनाओं का पारिश्रमिक भी इधर मिलने वाला नहीं था. तो यह ख़र्च किस तरह पूरा होगा? आज उसने विनय से पचास रुपए उधार माँगा था तो स्साले ने कहा, “अपनी कहानियों में हम पैसे वालों के गले पर छुरी चलाकर कम्युनिस्ट बनते हो और मौक़ा आने पर हमसे ही टुकड़ा पाने की उम्मीद करते हो.”
उसके मन में आया कि उसकी चमड़ी उधेड़ दे. उसे ख़ुद ही ग्लानि हुई. क्यों माँगा पैसा उस कमीने से. रमेश से भी माँगा था तो वह बोला था, “यार मेरे, मैं तो ख़ुद ही तुमसे माँगने वाला था. क्या बताऊँ…” जुम्मन मियाँ और जहीर मियाँ जैसे लोगों से मदद मिलने की कोई भी उम्मीद नहीं थी उसे. हालाँकि उसने न तो कभी इन लोगों से पैसा माँगा था और न कभी इन लोगों ने इनकार ही किया था लेकिन न जाने उसे क्यों महसूस होता कि ये लोग मदद नहीं दे पाएँगे.
“अरे स्साले! मैं तेरी नस-नस पहचानता हूँ तुम पक्के हरामी हो. क्यों जाते हो दारू की दुकान पर?…”“अल्ला क़सम जहीर मियाँ, मुझे छोड़े तीन महीने हो गए.”“झूठ बोलता है…”“झूठ नहीं जहीर मियाँ. जो दारू पीने जाता हो, वह…”
ऐसे ही माहौल में वह अक्सर आ जाया करता है.आज आते ही जहीर मियाँ ने उठकर स्वागत करते हुए कहा, “आओ बिरादर. ख़ैरियत तो है?”
सभी के चले जाने के बाद तनहा मौसम में जहीर मियाँ ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर पूछा, “क्यों बिरादर, आज बहोत चोप दिखाई पड़ते हो. क्या मामिला है?”
“नहीं जहीर मियाँ…”“अरे बोलो भी! यह क्या छोकरियों की तरह शरमाते हो. कोई परेशानी हो तो बेरोक-टोक उगल दो.”“दरअसल बात यह है कि…कुछ रुपयों की सख़्त जरूरत है…मगर आप तो खुद ही परेशानी में हैं…किसी से दिला देते तो…”“बिरादर तुम जानते ही हो कि जहीर मियाँ किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते.”“अच्छा छोड़िए…कहीं और तलाशूँगा.”
“और कहाँ तलाशोगे? रहते हो मेरे मुहल्ले में और तलाशोगे और कहीं.” जहीर मियाँ ने जेब से चालीस रुपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिए…रुपये उसकी हथेली पर काँप रहे थे. वह एकटक जहीर मियाँ को देख रहा था.जहीर मियाँ एक क्षण उसे घूरते रहे फिर फीकी हँसी हँसकर बोले, “क्या देख रहे हो बिरादर? मैं कोई नुमाइशी चीज़ नहीं हूँ. कुछ दिन ‘और’ बिना स्वेटर के. वैसे मुझे सरदी ज़रा भी नहीं लगती मगर यह जो मेरी बीवी है न साली…नाक में दम किए रहती है कि स्वेटर पहनूँ. ए…यह आँसू क्यों…”
“जहीर मियाँ मैं बहुत टूट चुका हूँ.”
“बिरादर इनसान समझता है कि वह टूट रहा है. यहीं बेवकूफ़ी कर जाता है वह. मुझे देखो, मैं तुमसे कम तकलीफ़ में हूँ?”